सम्मोहन तेरे दिल के तिल ने नजरों पर ऐसा फेरा l
दर्पण भी मेरा अकेले में खुद से शर्माने लगा ll
जादुई संचारी ने आहिस्ता आहिस्ता लिखी जो ग़ज़ल l
प्रतिबिंब उसकी बन गयी मेरे आरज़ू की धूप सहर ll
साक्षी किरणें ढलती सांध्य लालिमा घूंघट ढाल l
सुकून चुरा ले गयी पलकों अब्रों शमशीर नाल ll
नज़र उतारी नजरों की बना इसे ताबीज बाती साय l
मुक्तक खुल संवर गयी इन बंद पिंजर गलियारों माय ll
उलझी थी जो पाती बिन अक्षरों पहेली रंगीन धागों की l
महका गयी गुल बिन हीना ही इन कजरी हाथों की ll
बहुत सुन्दर सृजन ।
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