ख्याल जेहन आया रुबरु करा लूँ खुद से खुद को आज l
थरथरा उठे पांव महीन नोंक चुभन कंपकंपी के साथ ll
निरंतर पराजय से क्षत विक्षित वैचारिक वाद संवाद l
द्वंद समावेश लिये यह आक्रमक सैली रंजिश द्वार ll
विस्फोटक चक्रव्यूह आगे नतमस्तक चक्रवर्ती मंथन काल l
हर बारीकी में बारूदी कण कण मस्तिष्क शून्य ग्रसत समाय ll
अभिलाषा परम्परा आलेख स्वप्न दिग्भ्रमित ग्रहण छाया माय l
मरुधरा सी मिथ्या काया मन रुदन आवेग विचलित करती जाय ll
रेखांकित चित्रण अधूरे रूह बदलते जज़्बातों की l
फेहरिस्त लहू रिसते बोझिल नयन दर्पण अरमानों की ll
संजो पिरो ना पायी फिर से कड़ियां उन पायदानों की l
आतुर बेकरार खयालात खुद मुझे खुद से मिलाने की ll
सही कहा खुद से रूबरू होना भी जरूरी है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन
वाह!!!
बहुत खूब ... सूक्तियों की तरह लिखे तीर ...
ReplyDeleteआदरणीय दिगम्बर भाई साब
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
बहुत सुंदर कभी कभी ख़ुद को ख़ुद से मिलवाना भी बहुत ज़रूरी होता है ।
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