Thursday, August 3, 2023

सगर

गुजारी थी कई रातें ख्वाबों के सिरहाने तले l

सितारों की आगोश में चाँदनी लिहाफ तले ll


फिर भी तवायफ सी थी ख्वाहिशें धड़कनों की l

राहों टूटे घुँघरू पिरो ना पायी माला साँसों की ll


बंदिशें कौन सी क्यों थी चाँद की पर्दानशी में l

बेपर्दा कर ना पायी जो पलकों तले राज छुपे ll


दूरियों के अह्सास में भी जैसे कोई आहट साथ थी l

फुसफुसा रही हवा झोंकों में कुछ तो खास खनकार थी ll


मिली थी जो कल फिर उस पुराने बरगद छाँव तले l

परछाई की उस रूमानी रूह में रूहानी साँझ थी ll


आकार निराकार था उस प्रतिबिंब के दर्पण नजर में l

फिर भी हर अल्फाजों में उसकी ही बात सगर रही थी ll

6 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०६-०८-२०२३) को 'क्यूँ परेशां है ये नज़र '(चर्चा अंक-४६७५ ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. आदरणीया अनीता दीदी जी
      मेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए तहे दिल से आपका आभार

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  2. वाह!बहुत सुन्दर।

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    1. आदरणीय भाई साब
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  3. मिली थी जो कल फिर उस पुराने बरगद छाँव तले l

    परछाई की उस रूमानी रूह में रूहानी साँझ थी
    बहुत ही सुन्दर, भावपूर्ण गजल ।

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    1. आदरणीया सुधा दीदी जी
      आपका उत्साहवर्धन ही मेरी कूची के रंगों की सुनहरी धुप की मीठी बारिश हैं, आशीर्वाद की पुँजी के लिए तहे दिल से नमन

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