गुजारी थी कई रातें ख्वाबों के सिरहाने तले l
सितारों की आगोश में चाँदनी लिहाफ तले ll
फिर भी तवायफ सी थी ख्वाहिशें धड़कनों की l
राहों टूटे घुँघरू पिरो ना पायी माला साँसों की ll
बंदिशें कौन सी क्यों थी चाँद की पर्दानशी में l
बेपर्दा कर ना पायी जो पलकों तले राज छुपे ll
दूरियों के अह्सास में भी जैसे कोई आहट साथ थी l
फुसफुसा रही हवा झोंकों में कुछ तो खास खनकार थी ll
मिली थी जो कल फिर उस पुराने बरगद छाँव तले l
परछाई की उस रूमानी रूह में रूहानी साँझ थी ll
आकार निराकार था उस प्रतिबिंब के दर्पण नजर में l
फिर भी हर अल्फाजों में उसकी ही बात सगर रही थी ll
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०६-०८-२०२३) को 'क्यूँ परेशां है ये नज़र '(चर्चा अंक-४६७५ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आदरणीया अनीता दीदी जी
Deleteमेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए तहे दिल से आपका आभार
वाह!बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआदरणीय भाई साब
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
मिली थी जो कल फिर उस पुराने बरगद छाँव तले l
ReplyDeleteपरछाई की उस रूमानी रूह में रूहानी साँझ थी
बहुत ही सुन्दर, भावपूर्ण गजल ।
आदरणीया सुधा दीदी जी
Deleteआपका उत्साहवर्धन ही मेरी कूची के रंगों की सुनहरी धुप की मीठी बारिश हैं, आशीर्वाद की पुँजी के लिए तहे दिल से नमन