कल देखा था बारिश को जुल्फों पर फिसलते हुए l
हौले से आँचल को लिपट कंगन डोरी बंधते हुए ll
मदमाती सी भींग रही थी दामन की पतवार l
संग पुरबाई झोंकों से कर्णफूल कर रहे थे करताल ll
महकी बालों गुँथी वेणी काले बादल रमी थी ऐसी l
रंग रुखसार बिखरा गयी थी इन्द्रधनुषी घटा शरमाय ll
लहर संगीत धुन बरसी थी जो नयनों काजल से l
कजरी स्याह मेघ सी ढाल गयी थी सुरमई आँखों में ll
झूमी थी जो झांझर एक पल शहनाई मृदुल तान सी l
सहमा लज्जा गयी थी बिंदिया इस माथे दर्पण ताज की ll
घूंघट पहरा ना था इसके सुनहरे आसमाँ आँगन में l
ग़ज़ल कोई लिख गयी कुदरत मानो बारिश बूँदों में ll