आकृति मेरी प्रतिलिपि की जी रही किसी और के साये सी l
मगर खुदगर्ज़ी सी वो पहेली मानो नचा रही इसे तांडव सी ll
धोखा था उसकी उस साँझ का ख्वाब महका था जिसके छांव तले l
गुलजार पनघट सा वो नज़र आता था जिस महताब की डगर तले ll
अक्सर उस जगह जहाँ मैं भूल आता था पता अपना ही l
फ़िज़ाओं की उन लिफाफों के करवटों सलवटों साये तले ll
कभी रूबरू खुद को करा ना पाया उनके अंतरंगी पलों से l
आधे अधूरे खत के उन लिफाफों के बिखरते सप्तरंगी रंगों से ll
कुछ कदम का फासला था प्रतिबिंब की उस परछाई से l
दबी थी रूह मेरी आकृति की जिस साये की परछाईं से ll
बहुत खूब 👌👌
ReplyDeleteकायल कर दिया आपने!!
आदरणीया रूपा दीदी जी
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4574 में दिया जाएगा|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
आदरणीय दिलबागसिंह भाई साब
Deleteमेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए तहे दिल से आपका आभार
बहुत खूब
ReplyDeleteआदरणीय ओंकार भाई साब
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
बहुत ख़ूब !! बहुत सुन्दर कृति ।
ReplyDeleteआदरणीया मीना दीदी जी
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
बहुत ही बेहतरीन 👌
ReplyDeleteआदरणीया अनीता दीदी जी
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ।
आदरणीया सुधा दीदी जी
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद