कहाँ से चला था कौन सी डगर का मुकाम था वो l
राहों की अधीर पगडण्डियाँ का सैलाब सा था जो ll
टूटे खंडहरों का आशियाँ था शायद जैसे कोई l
बिखरे ख्वाबों की लूटी अस्मत थी जैसे कोई ll
झंझोर था एक रुकी हुई दबी सी हल्की आहट का कहीं l
दस्तक दे रही जो निःशब्द अहसासों को कभी कभी ll
व्याकुल पपहिया छुपे पैगाम भेज रहा था जैसे कोई l
शब्द फिर भी पास ना थे उन सूखे हुए लबों के कहीं ll
बैचैन सावन की पुरवाई का रुख जुदा था खुद से कहीं कहीं l
रौनक ऐ महफिल का चाँद तन्हा खोया हुआ था और कहीं ll
इतनी भर साँसे अब तलक भी जो थी जिंदा बची खुची l
एक संदेशे इंतजार में धड़का जाती थी यह दिल कभी कभी ll