इन तन्हाइयों की अब कोई सहर नहीं l
साँझ सी डूबती धड़कनों में ख्वाब नहीं ll
काफिर की अनसुनी फ़रियाद थी जो कभी l
विलीन हो गयी पत्थरों के बीच आज कही ll
रूमानी थी जो शामें उसके नूर की गली गली l
मशहूर हैं वो आज सुरा की बदनाम गली गली ll
महरूम ख़ामोशियों ने तराशा था जो मंजर l
उस मोड़ पर तन्हा अधूरा खड़ा था बचपन ll
मशगूल थी मौजे अम्बर आस पास में l
प्यासी थी फिर भी बूंदे अपने आप में ll
जुदा होना चाहा था ख़ुद ने जिस रुसवाई से l
लिपटा हुआ खड़ा था उसकी ही परछाई में ll
सौदा जिस रूह से इस तन का कभी हुआ था l
ज़ख्म उसका इस सीने से कभी जुदा हुआ नहीं ll
भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteआदरणीया मीना दीदी जी
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२०-०५-२०२२ ) को
'कुछ अनकहा सा'(चर्चा अंक-४४३६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आदरणीया अनीता दीदी जी
Deleteमेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए तहे दिल से आपका आभार
बहुत खूब सर!
ReplyDeleteआदरणीय भाई साब
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
वाह मनोज कायल जी !
ReplyDeleteज़ख्म खाते जाएंगे, आंसू बहाते जाएंगे,
पर मोहब्बत करने से, हर्गिज़ नहीं बाज़ आएँगे.
आदरणीय गोपेश भाई साब
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
वाह!सुंदर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteआदरणीया शुभा दीदी जी
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
वाह.. बेहतरीन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआदरणीया दीदी जी
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद
उम्दा नज़्म।
ReplyDeleteआदरणीया दीदी जी
Deleteसुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद