Thursday, May 19, 2022

ज़ख्म

इन तन्हाइयों की अब कोई सहर नहीं l
साँझ सी डूबती धड़कनों में ख्वाब नहीं ll

काफिर की अनसुनी फ़रियाद थी जो कभी l
विलीन हो गयी पत्थरों के बीच आज कही ll

रूमानी थी जो शामें उसके नूर की गली गली l
मशहूर हैं वो आज सुरा की बदनाम गली गली ll

महरूम ख़ामोशियों ने तराशा था जो मंजर l
उस मोड़ पर तन्हा अधूरा खड़ा था बचपन ll

मशगूल थी मौजे अम्बर आस पास में l 
प्यासी थी फिर भी बूंदे अपने आप में ll

जुदा होना चाहा था ख़ुद ने जिस रुसवाई से l
लिपटा हुआ खड़ा था उसकी ही परछाई में ll

सौदा जिस रूह से इस तन का कभी हुआ था l
ज़ख्म उसका इस सीने से कभी जुदा हुआ नहीं ll

14 comments:

  1. भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी सृजन ।

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    1. आदरणीया मीना दीदी जी
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२०-०५-२०२२ ) को
    'कुछ अनकहा सा'(चर्चा अंक-४४३६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. आदरणीया अनीता दीदी जी
      मेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए तहे दिल से आपका आभार

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    1. आदरणीय भाई साब
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  4. वाह मनोज कायल जी !
    ज़ख्म खाते जाएंगे, आंसू बहाते जाएंगे,
    पर मोहब्बत करने से, हर्गिज़ नहीं बाज़ आएँगे.

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    1. आदरणीय गोपेश भाई साब
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  5. वाह!सुंदर अभिव्यक्ति ।

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    1. आदरणीया शुभा दीदी जी
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  6. वाह.. बेहतरीन अभिव्यक्ति।

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    1. आदरणीया दीदी जी
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  7. उम्दा नज़्म।

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    1. आदरणीया दीदी जी
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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