माना की वहम थी वो सांवली सी काया इन आँखों की l
पर अर्ध चाँद सी अधूरी ताबीर थी इस नूर ए अंदाज की ll
मौसम भी ऐसा बे रुत बदला इसके अंजुमन साज में l
मेघ मल्हार सज गया जैसे किसी प्यासे रेगिस्तान में ll
छांव सलोनी सी खाब्बों की ढलती रात मुलाक़ातों की l
खलिस इस रहगुज़र की मौन करवटें बदलती रातों की ll
महकी थी फिजां हीना की कभी कभी उस दालान आस पास भी l
अहसास जब कभी सिमट आये इनके रुखसार दरमियाँ पास भी ll
किस्सा ए बयां थी उन बेईमान धड़कनों किस्तों का l
अनजानी अजनबी उन मचलती आरजू अंतरंगों का ll
एक सदी सी गुजर गयी रंगते रंगते रूह जिस कायनात की l
तस्वीर फिर भी अधूरी रह गयी उस सांवली काया साज की ll
बहुत सुंदर सराहनीय सृजन ।
ReplyDeleteआदरणीया मीना दीदी जी
Deleteआपका तहे दिल से शुक्रिया
मौसम भी ऐसा बे-ऋतु बदला इसके अंजुमन साज में l
ReplyDeleteमेघ मल्हार सज गया जैसे किसी प्यासे रेगिस्तान में ll,,,,, बहुत सुंदर लाजवाब रचना,
आदरणीया मधुलीका दीदी जी
Deleteआपका तहे दिल से शुक्रिया
तस्वीर फिर भी अधूरी रह गयी उस सांवली काया साज की-सुन्दर -सटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआदरणीय भाई साब
Deleteआपका दिल से शुक्रिया
बहुत ही उम्दा एहसासों का सृजन।
ReplyDeleteसुंदर सुघड़।
आदरणीया कुसुम दीदी जी
Deleteआपका तहे दिल से शुक्रिया