माना की वहम थी वो सांवली सी काया इन आँखों की l
पर अर्ध चाँद सी अधूरी ताबीर थी इस नूर ए अंदाज की ll
मौसम भी ऐसा बे रुत बदला इसके अंजुमन साज में l
मेघ मल्हार सज गया जैसे किसी प्यासे रेगिस्तान में ll
छांव सलोनी सी खाब्बों की ढलती रात मुलाक़ातों की l
खलिस इस रहगुज़र की मौन करवटें बदलती रातों की ll
महकी थी फिजां हीना की कभी कभी उस दालान आस पास भी l
अहसास जब कभी सिमट आये इनके रुखसार दरमियाँ पास भी ll
किस्सा ए बयां थी उन बेईमान धड़कनों किस्तों का l
अनजानी अजनबी उन मचलती आरजू अंतरंगों का ll
एक सदी सी गुजर गयी रंगते रंगते रूह जिस कायनात की l
तस्वीर फिर भी अधूरी रह गयी उस सांवली काया साज की ll