उन अनछुए लावण्य लम्हों का जिक्र जब जब चला l
साँसे अनजानी थी धड़कनों से भ्रम सत्य हो चला ll
गुलदस्ते एक किनारे पे बैठा था पल सिरहाने से l
पतझड़ सा मौसम दस्तक दे रहा जैसे सावन में ll
धागे बिन अधूरी थी पर मोतियों की वो माला l
पिरो गुँथी नहीं जिसमें इसकी शबनमी काया ll
खोई स्मृतियों झाँक रही घूंघट के उन दौरों से l
पानी नहीं था जब बादलों की उफनती मौजों में ll
प्यासे प्यासे रुंधे कंठ आतुर थे तर जाने को l
मदिरालय दूर खड़ी बुला रही पास आने को ll
लकीरें खिंची थी दोनों ने दहलीज के दोनों छोरों पर l
हौले बिसरा गया मिलन साँसों का धड़कन मोड़ पर ll
हौले बिसरा गया मिलन साँसों का धड़कन मोड़ पर l
हौले बिसरा गया मिलन साँसों का धड़कन मोड़ पर ll