Sunday, September 12, 2021

सहर

उनींदी आँखों लिखने बैठा तेरी सहर की कली l 
नज़्म ढलती गयी खुद ही नज़र की इस कली ll

जादू कर गयी तेरे ताबीज़ की वो कच्ची डोरी l
बंधी थी जिससे तेरे संग मेरे रूह की डोरी ll  

सुन तेरे पाक इबादत के नूरों को इस घड़ी l
सिमट मिटते गयी हर फासलों की ये घड़ी ll

ओश शोखियाँ सी इठलाती नाज़ुक तू तितली l 
शिकायतें जो उड़ा ले गयी ग़ज़ल की इस गली ll

खुमारी लगी दिल्लगी एक मासूम सी कली l
तालीम आलम छा गयी पलकों पे दिलकशी ll  

रंगत बरस रही लफ्जों से अजान सी मीठी l
खोये अल्फ़ाज़ों से जुड़ गयी लबों की खुशी ll

लिखने बैठा तेरी सहर सफर की इस गली l
उनींदी आँखे खुली तेरे ही नयनों की गली ll

10 comments:

  1. उनींदी नहीं होना चाहिए क्या? सुन्दर सृजन

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    1. आदरणीय सुशील भाई साहब
      मेरी रचना को शुद्ध करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, अभी इसे सही करता हूँ, आगे भी इसी तरह मार्गदर्शन करते रहे l
      सादर

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  2. आदरणीया यशोदा दीदी जी
    मेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिये तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ l
    आभार

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  3. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-9-21) को "हिन्द की शान है हिन्दी हिंदी"(4187) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा






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    1. आदरणीया कामिनी दीदी जी
      मेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिये तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ l
      आभार

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  4. रंगत बरस रही लफ्जों से अजान सी मीठी l
    खोये अल्फ़ाज़ों से जुड़ गयी लबों की खुशी ll

    लिखने बैठा तेरी सहर सफर की इस गली l
    उनींदी आँखे खुली तेरे ही नयनों की गली ll गहनतम

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    1. आदरणीय संदीप भाई साब
      सुन्दर प्रेरणादायक शब्दों के लिए आपको नमन

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  5. वाह!बहुत सुंदर अनुज।
    सादर

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    1. आदरणीया अनीता दीदी जी
      सुन्दर शब्दों से हौशला अफजाई के लिए तहे दिल से आपका आभार

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