सोचा लम्हा एक चुरा लूँ उन हसीन खाब्बों के पल से l
फिसल गए वो हुनर ना आया मुट्ठी को इस पल में ll
वजूद मेरे किरदार का भी कुछ उस दर्पण जैसा l
अक्स निहार छोड़ गए जिसे हर कोई अकेला ll
पिंजरे बंद परिंदा हूँ उन सुनहरे अरमानों का l
पंख मिले नहीं जिसे कभी उन आसमानों का ll
छू आँचल निकल गयी वो पवन वेग हठेली भी l
गुलशन फिजायें महकी थी कभी जिस गली भी ll
फासला सिमटा नहीं इन हथेली लकीरों का कभी l
अजनबी बन गया दामन खुद का खुद से तभी ll
सौदा रास ना आया अपनी खुदगर्जी से कभी l
बारीकें सीखी थी जिन की मर्ज़ी से ही कभी ll
बैठा हूँ उन टिमटिमाते जुगनुओं सी सर्द रातों में l
चाँद मेरा भी नज़र आयेगा कभी इस मुँडेर की दीवारों पे ll
सुंदर भावाभिव्यक्ति ,'फासला सिमटा नहीं इन हथेली लकीरों का कभी ..'
ReplyDeleteआदरणीया दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (02-07-2021) को "गठजोड़" (चर्चा अंक- 4113) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
आदरणीय मीना दीदी जी
Deleteमेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए शुक्रिया
सादर
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २ जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आदरणीय दीदी जी
Deleteमेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए शुक्रिया
सादर
वजूद मेरे किरदार का भी
ReplyDeleteकुछ उस दर्पण जैसा
अक्स निहार छोड़ गए
जिसे हर कोई अकेला
बेहतरीन..
सादर..
बहुत ख़ूब … परिंदों का ये हश्र इंसान करता है …
ReplyDeleteविनाश का प्रमुख कारण इंसान ही है …
आदरणीय दिगम्बर जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
फिसल गए वो हुनर ना आया मुट्ठी को इस पल में। हमारा हाल भी कुछ ऐसा ही रहा है मनोज जी। आप जो कहते हैं, दिल से कहते हैं। और यही होना चाहिए।
ReplyDeleteआदरणीय जितेन्द्र जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
बैठा हूँ उन टिमटिमाते जुगनुओं सी सर्द रातों में l
ReplyDeleteचाँद मेरा भी नज़र आयेगा कभी इस मुँडेर की दीवारों पे ll
उम्मीद पर दुनिया कायम ।
बेहतरीन ग़ज़ल ।
आदरणीया संगीता दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteफासला सिमटा नहीं इन हथेली लकीरों का कभी l
ReplyDeleteअजनबी बन गया दामन खुद का खुद से तभी..
.बहुत ही सुंदर सराहनीय।
सादर
आदरणीया अनिता दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
सोचा लम्हा एक चुरा लूँ उन हसीन खाब्बों के पल से l
ReplyDeleteफिसल गए वो हुनर ना आया मुट्ठी को इस पल में ll
वजूद मेरे किरदार का भी कुछ उस दर्पण जैसा l
अक्स निहार छोड़ गए जिसे हर कोई अकेला ll
बहुत खूब !!एक-एक शेर लाजबाब...सादर
आदरणीया कामिनी दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
बैठा हूँ उन टिमटिमाते जुगनुओं सी सर्द रातों में l
ReplyDeleteचाँद मेरा भी नज़र आयेगा कभी इस मुँडेर की दीवारों पे ll...बहुत सुंदर शेर,नायाब रचना।
आदरणीया जिज्ञासा दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
पिंजरे बंद परिंदा हूँ उन सुनहरे अरमानों का l
ReplyDeleteपंख मिले नहीं जिसे कभी उन आसमानों का ll
बहुत शानदार/उम्दा सृजन।
हर शेर लाजवाब।
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteआदरणीय ओंकार भाई जी
Deleteमेरी रचना को पसंद करने के लिए शुक्रिया
सादर
बैठा हूँ उन टिमटिमाते जुगनुओं सी सर्द रातों में l
ReplyDeleteचाँद मेरा भी नज़र आयेगा कभी इस मुँडेर की दीवारों पे
वाह!!!
बहुत सुन्दर.. लाजवाब।
आदरणीया सुधा दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
सुंदर रचना
ReplyDeleteआदरणीय सुशील भाई जी
Deleteमेरी रचना को पसंद करने के लिए शुक्रिया
सादर
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteआदरणीय आलोक भाई जी
Deleteमेरी रचना को पसंद करने के लिए शुक्रिया
सादर
बहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteआदरणीय शांतनु जी
Deleteमेरी रचना को पसंद करने के लिए शुक्रिया
सादर
उम्दा नज़्म ।
ReplyDeleteआदरणीया अमृता दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर