बड़े ही हुनरमंद थे उनकी कारीगरी के हाथ
तराशते रहे काँच का दिल पथरों के साथ
रंज ना हुआ उन हाथोँ को एक पल को भी
नश्तर सी चुभती रही टूटे शीशे की धार
दरिया रिस्ते लहू का था बड़ा ही बदनाम
धड़कनों पे था मौन रहने का इल्जाम
लकीरें हथेलियाँ उकेरी नहीं उन खाब्बों ने
साँसों का सौदा था जिस अज़नबी खाब्बों से
थी वो एक बहती मझधार पहेली सी
कश्ती बहा ले गयी वो दिले नादान की
रास ना आयी उसे वफायें यार की
दिल दगा दे गयी उस मेहताब की
अस्तित्व बिख़र गया टूट काँच के आफ़ताब की
वो तराशती रही पथरों से दिल चटक धार सी
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२६-0६-२०२१) को 'आख़री पहर की बरसात'(चर्चा अंक- ४१०७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आदरणीया दीदी जी
Deleteमेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए शुक्रिया
सादर
अच्छे हैं शेर ... इन्हें कोशिश कर के मात्राओं में लिखेंगे तो और भी अच्छे लगेंगे ...
ReplyDeleteआदरणीय दिगंबर भाई साब
Deleteहौशला अफ़ज़ाई और सुन्दर सुझाव के लिए तहे दिल से शुक्रिया , आगे से पूरी कोशिश करूँगा , आपके सुझाव पर खरा उतरु .
सादर
उम्दा शेरों का सृजन।
ReplyDeleteआदरणीया जिज्ञासा दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
सुंदर सृजन आदरणीय ।
ReplyDeleteआ0 दिगम्बर जी बातों पर गौर ज़रूर कीजियेगा ।
सादर
आदरणीय हष॔ जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
बहुत ख्ाूब मनोज जी,---तराशते रहे काँच का दिल पथरों के साथ " क्या खूब कहा--वाह
ReplyDeleteआदरणीया अलकनंदा दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
बड़े ही हुनरमंद थे उनकी कारीगरी के हाथ
ReplyDeleteतराशते रहे काँच का दिल पथरों के साथ
वाह!!
बहुत सुन्दर।
आदरणीया सुधा दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर