फुर्सतों की उनकी भीनी भीनी पनाहगायें l
ठिकाना बन गयी मेरी मंजिलों की भोर ll
भटक रही जो आरजू उल्फतों में उलझी कहीं ओर l
छू गयी उस राह पुँज को अदृश्य शमा की एक छोर ll
अनबुझ पहेली थी उसके बिखरे बिखरे लट्टों की ढोर l
संदेशे खुली खुली जुल्फों के जैसे काली घटाएँ घनघोर ll
जुदा जुदा लकीरें हाथों की सलवटें माथे की l
निगाहें पनाह हो रही सुरमई करवटें रातों की ll
उफन रहा मचल रहा सागर छूने किनारें की टोह l
चुरा ले गया बहा ले गया तट को लहरों का शोर ll
कश्ती फिर भी सफ़र करती चली आयी तरंगों पे l
पनाह जो उसे मिल गयी उस चाँद की चकोर ll
फुर्सतों की उनकी भीनी भीनी पनाहगायें l
ठिकाना बन गयी मेरी मंजिलों की भोर ll
वाह सुंदर सृजन
ReplyDeleteआदरणीया सरिता दीदी जी
Deleteमेरी रचना को पसंद करने के लिए शुक्रिया
सादर
खुली खुली जुल्फों के सन्देश ... क्या बात है, नया अंदाज़ है शेरोंमें ...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
आदरणीय दिगंबर जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर