Friday, June 11, 2021

पनाह

फुर्सतों की उनकी भीनी भीनी पनाहगायें l
ठिकाना बन गयी मेरी मंजिलों की भोर ll

भटक रही जो आरजू उल्फतों में उलझी कहीं ओर l  
छू गयी उस राह पुँज को अदृश्य शमा की एक छोर ll 

अनबुझ पहेली थी उसके बिखरे बिखरे लट्टों की ढोर l
संदेशे खुली खुली जुल्फों के जैसे काली घटाएँ घनघोर ll

जुदा जुदा लकीरें हाथों की सलवटें माथे की l
निगाहें पनाह हो रही सुरमई करवटें रातों की ll   

उफन रहा मचल रहा सागर छूने किनारें की टोह l 
चुरा ले गया बहा ले गया तट को लहरों का शोर ll

कश्ती फिर भी सफ़र करती चली आयी तरंगों पे l
पनाह जो उसे मिल गयी उस चाँद की चकोर ll

फुर्सतों की उनकी भीनी भीनी पनाहगायें l
ठिकाना बन गयी मेरी मंजिलों की भोर ll

4 comments:

  1. वाह सुंदर सृजन

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    1. आदरणीया सरिता दीदी जी
      मेरी रचना को पसंद करने के लिए शुक्रिया
      सादर

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  2. खुली खुली जुल्फों के सन्देश ... क्या बात है, नया अंदाज़ है शेरोंमें ...
    बहुत खूब ...

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    1. आदरणीय दिगंबर जी
      हौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
      सादर

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