बिन दर्द जीवन
का क्या मोल l
गुलाब भी खिलता
काँटों के छोर ll
पीड़ ना पहचानी
जिस रूह ने l
कुदरत ने रची
नहीं ऐसी कपोल ll
कुछ और नहीं
कवायद यह धड़कनो
की l
फासला ना हो
साँसों और रूह
के करीब ll
मुनासिब हैं आहट
कदमों की बनी
रहे l
सामंजस्य बना रहे
उम्र और तन
के बीच ll
बँधी रहे साँसों से साँसों की डोर l
कमज़ोर ना हो आस की डोर ll
टूट गए जो डाली से तो क्यों रोय l
सजा दो गुलदस्ते में नए जीवन की भोर ll
बगियाँ के गुलसिताँ सजी महकती रहे l
अंकुरित कुदरत के प्राणों के बीज़ ll
बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteआदरणीय शिवम् जी
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया
सादर
मुनासिब हैं आहट कदमों की बनी रहे l
Deleteसामंजस्य बना रहे उम्र और तन के बीच ll बहुत खूब
आदरणीय संदीप जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
सादर
बँधी रहे साँसों से साँसों की डोर l
ReplyDeleteकमज़ोर ना हो आस की डोर ll
अति सुन्दर सृजन ।
आदरणीया मीना दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के तहे दिल से शुक्रिया
सादर
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव, बधाई.
ReplyDeleteआदरणीय डॉ शबनम दीदी जी
Deleteहौशला अफ़ज़ाई के लिए दिल से शुक्रिया
सादर
सत्य कथन-बिना दर्द जीवन का मोल पता नहीं चलता। बहुत सुंदर...
ReplyDeleteदर्द बिना जीवन का मोल समझना मुश्किल है। जिंदगी की सच्चाई को बया करती आपकी सुंदर रचना।
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