दुरस्त गुजर रही थी जिंदगी अकेले में l
क़त्ल कर दिया हसीन खाब्बों के मेलों ने ll
गुनाह हो गया बेबाक़ी निगाहों से l
रिहा कैसे हो उन उम्र कैद बंदिशों से ll
चाँद नज़र आया एक शाम मेरे आँगन में l
चल पड़ा वो भी दिल कारवें संग राहों में ll
मुक़ाम वो आ गया चौराहा ओर करीब आ गया l
सिर्फ अर्ध चाँद का साया रह गया इस मंज़िल पास ll
आहटों से रसिक इस कदर रहा बेख़बर l
आसमां डूबा ले गया चाँद घटाओं के पास ll
बिसर गया पथिक निकला था किस सफर l
कर बैठे गुनाह उसके मासूम से हमकदम ll
क़त्ल हो गया अरमानों के तसब्बुर का l
गुनहगार बन गया टूटे दिल ख्यालों का ll