ज़ख्मों के पैबंद सिलने भटकता रहा मैं l
अश्कों की कभी इस गली कभी उस गली ll
डोर वो तलाशता रहा ढक दे जो पैबंद की रूही l
दिखे ना दिल के जख़्म छुपी रहे सिलन की डोरी ll
ख़ामोशी लिए लहू रिस रहा तन के अंदर ही अंदर l
बुझा दे प्यास पानी इतना ना था समंदर के अंदर ll
मरुधर तपिश सी जल रही तन की काया l
बरगद से भी कोशों दूर थी चिलमन की माया ll
दृष्टिहीन बन गूँथ रहा ख्यालों की माला l
मर्ज़ निज़ात मिले भटकते रूह को साया ll
टूट गया तिल्सिम ताबीज़ के उस नूर का भी l
बिन आँसू रो उठी पलकों पे जब तांडव छाया ll
लुप्त था धैर्य विश्वास ना था अब गतिमान l
डूब गया प्रहर डस गया इसको तम का आधार ll
सी लूँ पैबंद किसी तरह दिल के बस एक बार l
छोड़ जाऊ तन का साया इसका फिर क्या काम ll