तू इस शहर की सहर थी I
मैं उस शहर की शाम II
देखा तुझे यूँ अचानक जब अपने दालान I
यूँ लगा जैसे जेहन उतर आया कोई चाँद II
पूछ रहे तुम मुझ से मेरा ही पता I
दिल को भा गया मुसाफ़िर तेरा यह अंदाज़ II
पैगाम लबों पे उनके अब तलक ऐसे ख़ामोश था I
किसी खाब्ब को जैसे किसी चाँदनी रात का इंतज़ार था II
भूल गया पता अपना एक पल को I
ग़ुम हो गया इशारों की परछाई को II
कुछ पल वो ठहरे कुछ कहते कहते अटके I
फिर थमा दामन हाथों में हौले से चल दिए II
बेजान सा खड़ा मैं कुछ समझ ना पाया I
वो जोड़ गयी दिलों के तार कैसे समझ ना पाया II
बस उसकी मुस्कराहट पर फ़िदा हो आया II
बस उसकी मुस्कराहट पर फ़िदा हो आया II
वाह
ReplyDeleteआदरणीय सुशील जी
Deleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-12-2020) को "उलूक बेवकूफ नहीं है" (चर्चा अंक- 3907) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आदरणीय शास्त्री जी
Deleteमेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
तू इस शहर की सहर थी I
ReplyDeleteमैं उस शहर की शाम II
वाह....👌
आदरणीय सिन्हा जी
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
वाह,बहुत सुंदर।
ReplyDeleteआदरणीय शिवम् जी
Deleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
आदरणीया ज्योती दीदी जी
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 06 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआदरणीया दिव्या जी
ReplyDeleteमेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
तू इस शहर की सहर थी I
ReplyDeleteमैं उस शहर की शाम II
वाह!!!!
बहुत सुन्दर।
आदरणीया सुधा दीदी जी
Deleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
सुन्दर रचना।
ReplyDeleteआदरणीय शांतनु जी
Deleteशुक्रिया
आभार
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआदरणीय आलोक जी
Deleteमेरी रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आभार
वाह मनोज जी ! बहुत ख़ूब !
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