निभाने कुछ मोहब्बत की रश्में I
बेचने चला था दिल गैरों के बीच II
मुनासिब ना था सौदा अरमानों के बीच I
मंजूर ना था रहगुजर को इससे कम का पीरII
फासला था लम्बा जख्म था गहरा I
काफिराना सा खो चला वजूद इनके बीच ll
दुःस्वप्न सा था बँटवारा दिलों की मंजिलों बीच l
नज़दीकियों की दूरिओं में विरह था सूनेपन का बीज II
आईना भी टूट बिखर गया था मन के बीच I
अंजाम ए फेहरिस्त बदल गयी थी आधी राह बीच II
मुनादी करवा दी वफाओं ने विदाई बीच I
खरा किरदार बिक रहा गुमनामी बीच II
अंजुमन की इस गुलिस्ताँ में आ गया मरुधर तीर I
मिला ना कोई सौदागर बावरा हो गया मन अधीर II
अंजुमन की इस गुलिस्ताँ में आ गया मरुधर तीर I
मिला ना कोई सौदागर बावरा हो गया मन अधीर II
दुःस्वप्न सा था बँटवारा दिलों की मंजिलों का I
ReplyDeleteनज़दीकियों की दूरिओं में विरह था सूनेपन का II
वाह!!!
बहुत सुन्दर... लाजवाब सृजन।
आदरणीया सुधा दीदी
Deleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteआदरणीय शास्त्री जी
Deleteरचना पसंद करने की लिए दिल से शुक्रिया
आभार
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-09-2020) को "शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-3815) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आदरणीय शास्त्री जी
Deleteमेरी रचना को अपना मंच देने के लिए शुक्रिया
आभार
मनोज
अच्छी कविता । हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteआदरणीय करून जी
Deleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
मनोज
वाह
ReplyDeleteआदरणीय गुरू जी
Deleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
मनोज
नासिब ना था सौदा अरमानों के बीच I
ReplyDeleteमंजूर ना था रहगुजर को इससे कम का पीरII,,,,,,बहुत सुंदर, ।
आदरणीया मधुलिका दीदी
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
ReplyDeleteअंजुमन की इस गुलिस्ताँ में आ गया मरुधर तीर I
मिला ना कोई सौदागर बावरा हो गया मन अधीर II
बहुत सुंदर।
आदरणीया ज्योती दीदी
Deleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार