Tuesday, August 11, 2020

शुन्य

चाहा था एक रोज समेट लूँ दुनिया सारी l

चाहत अब बस हैं इतनी सी समेट लूँ अपनी साँसे सारी ll

 

वेदना सृजन श्राप सी लगने लगी l

कष्ट मृदु वरदान सी लगने लगी ll

 

अल्प हैं राह फरियाद के पड़ाव की l

संख्या तो बस हैं उम्र लिहाज की ll

 

हुनर कमी थी शायद परवान के कुर्बान में l

सजा मेरी थी रजा उसकी ना थी इस दरखास्त में ll

 

ख्वाईश बस एक ही बची हैं l

कह रहा हूँ दिलों अरमान से ll

 

हर बंधन से अब मुक्त हो जाऊ l

शुन्य था शुन्य में मिल जाऊ ll


छोड़ कारवाँ ध्यान मग्न काम में l

गुजर जाऊ दहलीज के इस मुकाम से ll 


शुन्य था शुन्य में मिल जाऊ l

गुजर जाऊ दहलीज के इस मुकाम से ll 

4 comments:

  1. शून्य कर लें। सुन्दर सृजन।

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  2. आदरणीय सुशील जी
    आपका बहुत बहुत शुक्रिया
    आभार
    मनोज

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  3. बहुत सुन्दर।
    श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ आपको।

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    1. आदरणीय शास्त्री जी
      आपको भी कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें
      एवं रचना पसंद करने की लिए दिल से शुक्रिया
      आभार

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