चाहा था एक रोज समेट लूँ दुनिया सारी l
चाहत अब बस हैं इतनी सी समेट लूँ अपनी साँसे सारी ll
वेदना सृजन श्राप सी लगने लगी l
कष्ट मृदु वरदान सी लगने लगी ll
अल्प हैं राह फरियाद के पड़ाव की l
संख्या तो बस हैं उम्र लिहाज की ll
हुनर कमी थी शायद परवान के कुर्बान में l
सजा मेरी थी रजा उसकी ना थी इस दरखास्त में ll
ख्वाईश बस एक ही बची हैं l
कह रहा हूँ दिलों अरमान से ll
हर बंधन से अब मुक्त हो जाऊ l
शुन्य था शुन्य में मिल जाऊ ll
छोड़ कारवाँ ध्यान मग्न काम में l
गुजर जाऊ दहलीज के इस मुकाम से ll
शुन्य था शुन्य में मिल जाऊ l
गुजर जाऊ दहलीज के इस मुकाम से ll
शून्य कर लें। सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteआदरणीय सुशील जी
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
मनोज
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteश्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ आपको।
आदरणीय शास्त्री जी
Deleteआपको भी कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें
एवं रचना पसंद करने की लिए दिल से शुक्रिया
आभार