देख मुझे ऑनलाइन तुम ऑफ लाइन हो जाती हो l
डीपी बदलते ही सबसे पहले लाईक कर जाती हो ll
व्हाटस एप स्टेटस हो या फेस बुक l
कमेंट के नाम ठेंगा दिखा जाती हो ll
तुम कहती हो कोई खास रूचि नहीं l
फिर भी मेरी तस्वीरों को डाउनलोड करती जाती हो ll
भूल गयी तुम टेक्नोलॉजी ने युग बदल डाली हैं l
प्रोफाइल विजिट की ईमेल तुरंत मुझको पंहुचा जाती हैं ll
कैसे निहारु तुझे ऐ अजनबी महरबा l
तूने अपनी डीपी में भी तस्वीर मेरी जो लगा डाली हैं ll
कहानी अपनी कुछ कुछ मिलती जुलती सी है l
इश्तिहारों से सजी जैसे कोई जुगलबंदी सी हैं ll
पर एकबारगी गिरवी क्या रख दिये l
डैने जैसे फड़फड़ाना ही भूल गये ll
निशान गहरे सजे थे तन गलियारों में l
निशां लम्बी थी खोये हुए मझधारों में ll
दर्पण भी पहचानना भूल गयी l
घेर लिया उत्कंठि ज्वालाओं ने ll
बेदखल हूँ क्षतिज के हर अरमानों से l
मौन स्तब्ध हूँ अपने ही साये से ll
तू भी निःशब्द जकड़ी जंजीरों में l
टिमटिमा रही हो जैसे मज़बूरी में ll
एक सहमी चीत्कार हैं अपनी बंदगानी में l
मिलती जुलती सी फ़रियाद हैं तेरी मेरी कहानी में ll
चाहा था एक रोज समेट लूँ दुनिया सारी l
चाहत अब बस हैं इतनी सी समेट लूँ अपनी साँसे सारी ll
वेदना सृजन श्राप सी लगने लगी l
कष्ट मृदु वरदान सी लगने लगी ll
अल्प हैं राह फरियाद के पड़ाव की l
संख्या तो बस हैं उम्र लिहाज की ll
हुनर कमी थी शायद परवान के कुर्बान में l
सजा मेरी थी रजा उसकी ना थी इस दरखास्त में ll
ख्वाईश बस एक ही बची हैं l
कह रहा हूँ दिलों अरमान से ll
हर बंधन से अब मुक्त हो जाऊ l
शुन्य था शुन्य में मिल जाऊ ll
छोड़ कारवाँ ध्यान मग्न काम में l
गुजर जाऊ दहलीज के इस मुकाम से ll
शुन्य था शुन्य में मिल जाऊ l
गुजर जाऊ दहलीज के इस मुकाम से ll