दुआओं की बस मुराद बन रह गया ll
मुकाम लाखों ऐसे आये इस अंजुमन की फेहरिस्त में l
इजहार में इकरार मगर अधूरा रह गया तन्हाइयों के आलम में ll
दाग झलक रहा इश्क़ के दामन पैबंद जैसे l
कोई तिल चिपक आलिंगन कर गया चाँद को जैसे ll
चाँदनी के नूर से टपक रही आयतें रोज नयी जैसे l
किनारे बैठ दीदार हसरतें पैगाम दे रही कोई जैसे ll
मुकम्मल जहाँ मिला नहीं इश्क़ बदनाम जैसे l
चाँद भी बदलता रहा रूप जलाने इश्क़ को जैसे ll
आलम कुछ असहज बन गया करते करते इश्क़ की पैरवी ऐसे l
सितारों से महफूज चाँद भी तन्हा रहा गया अपने मुस्तकबिल जैसे ll
घरोंदे की दरों दीवार भी परायी नज़र आ रही दिल में l
रुखसत हो इश्क़ छोड़ गया चाँद को तन्हा जब से ll
रुखसत हो इश्क़ छोड़ गया चाँद को तन्हा जब से l
रुखसत हो इश्क़ छोड़ गया चाँद को तन्हा जब से ll
सार्थक कविता।
ReplyDeleteआदरणीय शास्त्री जी
Deleteदिल से शुक्रिया l
आभार
मनोज