महरूम थी पनागाह नसीब वो आसमां मिल जाए ll
छूट गए कदमों की निशां जानें कौन सी अजनबी मंज़िलों पे l
बेरुखी इस कदर छाई मुरझा गयी कपोल अनजानी राहों में ll
दस्तूर रिवाज़ यह कैसा हैं अपना भी सब पराया हैं l
छूआ जिस साये को वो भी एक टूटी प्रतिछाया हैं ll
समझौता था दर्द का अपने ही दर्द की ख़ामोशी से l
जलता रहा जिस्म रिसता रहा लहू अपनी ख़ामोशी से ll
पुकार था जिसे एक बार सी लिए लबों ने वो जज्बात l
रुँध गया कंठ थरथरा उठे उजड़े चमन के अरमान ll
पड़ गए पैरों में घुँघरू हाथों में जाम l
नचा रही किस्मत कोठे बन गए धाम ll
मिली ना मुक्ति मिले ना चैन चलते रहे जहर बुझे बाणों के खेल l
गिरवी रखी साँसे भी शिथिल हो गयी देख यह अझबूझ खेल ll
उम्दा नज्म।
ReplyDeleteआदरणीय शास्त्री जी
Deleteरचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आभार
मनोज
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