बूबूल की टहनियों नीम हैं जैसे साज
जुगनू रौशन रात हो रही निछावर
सुगंध गंध महका रहा मनचला चितवन
मधुर बेला खोल रही उपवन टोली
नज़राना दे रही पर्वतों की टोली
खोल दूँ चुपके से अरमानों की झोली
भर लूँ फेहरिस्त साँझ ठिठोली
सिलसिला चलता रहे पतंग मांझे की डोरी
फिरता रहूँ गगन गगन परवाजों की डोरी
सागर लहरें बहका रही मन चोरी चोरी
किस करवटें लेटूँ आयतें हो ना जाय चोरी
पदचापों की धुन धुएँ की धुंध
निकट आ रही सपनों की पुँज
नृत्य कर रही पंखुड़ियों की धुन
मदमस्त हो रही ओस की बूँद
आदरणीय शास्त्री जी
ReplyDeleteरचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आभार
मनोज