क्यों हर बार मैं ही छला हूँ
दर्द ने भी रंग अपना बदल लिया
डसते डसते खुद से तन्हा कर दिया
प्रायश्चित करने जिस चौखट पे आया
द्वार उसके भी अपने लिए बंद पाया
खुदा भी बहरा बन किसी कोने छिप गया
पत्थर की मूरत में कोई ना नूर उभर आया
मंज़िलें फकीरों सी राहों से भटक गयी
वेदनाएँ रूह में उतर अपनी होती चली गयी
तलाश रहा हूँ निदान जख्मों की ताबीर का
सकून कही मिला नहीं माँ की आँचल के छावं सा
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteयोग दिवस और पितृ दिवस की बधाई हो।
आदरणीय शास्त्री जी
Deleteरचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आभार
मनोज