इश्क़ के गुरुर में चूर एक आईना हमनें भी देखा
महताब की अदाओँ सा रंग बदलता इसे देखा
मुनासिब होता दिलों के दरमियाँ फरमाइसे ना होती
शायद खलिस दिलों की तब और जबां होती
हौले हौले फितरत रंगों की बदल गयी
सिलसिलों ने भी गुमनामी की चादर ओढ़ ली
हमने भी फिर मोहब्बत से रंजिश कर ली
कब्र इस दिल की अपने ही हाथों खोद दी
बेफिक्री का आलम अब ऐसा छाया हैं
बिन उसके ज़िक्र कोई ना हो पाया हैं
दूर फ़िर फ़लक पर चाँद नज़र आया हैं
शायद दीदार ए यार को फिर प्यार याद आया हैं
लहू के हर कतरे कतरे से एक ही फ़रियाद आया हैं
दाग के साथ चाँद और हसीन नज़र आया हैं
महताब की अदाओँ सा रंग बदलता इसे देखा
मुनासिब होता दिलों के दरमियाँ फरमाइसे ना होती
शायद खलिस दिलों की तब और जबां होती
हौले हौले फितरत रंगों की बदल गयी
सिलसिलों ने भी गुमनामी की चादर ओढ़ ली
हमने भी फिर मोहब्बत से रंजिश कर ली
कब्र इस दिल की अपने ही हाथों खोद दी
बेफिक्री का आलम अब ऐसा छाया हैं
बिन उसके ज़िक्र कोई ना हो पाया हैं
दूर फ़िर फ़लक पर चाँद नज़र आया हैं
शायद दीदार ए यार को फिर प्यार याद आया हैं
लहू के हर कतरे कतरे से एक ही फ़रियाद आया हैं
दाग के साथ चाँद और हसीन नज़र आया हैं
बढ़िया रचना।
ReplyDeleteआदरणीय शास्त्री जी
Deleteरचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आभार
मनोज
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (08-06-2020) को 'कुछ किताबों के सफेद पन्नों पर' (चर्चा अंक-3733) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
आदरणीय रविन्द्र जी
Deleteमेरी रचना को अपना मंच देने के लिए शुक्रिया
आभार
मनोज
सुंदर रचना
ReplyDeleteआदरणीय ओंकार जी
Deleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
मनोज
वाह !बेहतरीन .
ReplyDeleteआदरणीया अनीता जी
Deleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
आभार
मनोज