खट्टास जंग की परत ऐसी जमी जिंदगानी पर l
चाबी रिश्तों की अलग हो गयी गुच्छे की पहरेदारी पर ll
बड़ी सिद्धत से सँवारा सहेजा जिस रिश्ते को l
हिफाज़त ही गुनाह बन गयी उसकी नजाकत को ll
सहज बेबाक पतंगों से उड़ते रहते थे जो रिश्ते l
डोर उसकी ही उलझ कट गयी अपने ही माँझे से ll
लाख जतन की मिट्टी महकती रहे इसकी की कोमल राहों की l
फूलों से सजी रहे पगडण्डी इसकी राहोँ की ll
खुदा भी ख़ौफ़ज़दा हो गया इसके चिंतन क्रोध के आगे l
तल्खी में चादर नकाब की बैरी बन जब इसने ओढ़ ली ll
गुरुर था जिस रिश्ते को नफ़ासत अंदाज़ से जीने का l
मगरूर बन बिफर गया आसमां उसके कोने कोने का ll
हिसाब अधूरा रह गया कुछ खोने और पाने का l
सवाल अटक गया बेहिसाब जज्बातों का ll
प्रायश्चित करूँ कैसे अनवरत बह रहे अश्कों का l
निरुत्तर वो मौन है सजदा रिश्तों के रखवालों का ll
प्रायश्चित करूँ कैसे अनवरत बह रहे अश्कों का l
निरुत्तर वो मौन है सजदा रिश्तों के रखवालों का ll
चाबी रिश्तों की अलग हो गयी गुच्छे की पहरेदारी पर ll
बड़ी सिद्धत से सँवारा सहेजा जिस रिश्ते को l
हिफाज़त ही गुनाह बन गयी उसकी नजाकत को ll
सहज बेबाक पतंगों से उड़ते रहते थे जो रिश्ते l
डोर उसकी ही उलझ कट गयी अपने ही माँझे से ll
लाख जतन की मिट्टी महकती रहे इसकी की कोमल राहों की l
फूलों से सजी रहे पगडण्डी इसकी राहोँ की ll
खुदा भी ख़ौफ़ज़दा हो गया इसके चिंतन क्रोध के आगे l
तल्खी में चादर नकाब की बैरी बन जब इसने ओढ़ ली ll
गुरुर था जिस रिश्ते को नफ़ासत अंदाज़ से जीने का l
मगरूर बन बिफर गया आसमां उसके कोने कोने का ll
हिसाब अधूरा रह गया कुछ खोने और पाने का l
सवाल अटक गया बेहिसाब जज्बातों का ll
प्रायश्चित करूँ कैसे अनवरत बह रहे अश्कों का l
निरुत्तर वो मौन है सजदा रिश्तों के रखवालों का ll
प्रायश्चित करूँ कैसे अनवरत बह रहे अश्कों का l
निरुत्तर वो मौन है सजदा रिश्तों के रखवालों का ll
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरूवार 07 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आदरणीय रविंद्र जी
Deleteमेरी रचना को अपने मंच पर स्थान देने के लिए शुक्रिया
आभार
मनोज
प्रायश्चित करूँ कैसे अनवरत बह रहे अश्कों का l
ReplyDeleteनिरुत्तर वो मौन है सजदा रिश्तों के रखवालों का ll
बहुत खूब.... ,सादर नमन
आदरणीया कामिनी जी
Deleteरचना पसंद करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया
आभार
मनोज
सहज बेबाक पतंगों से उड़ते रहते थे जो रिश्ते l
ReplyDeleteडोर उसकी ही उलझ कट गयी अपने ही माँझे से
अपने ही माँझे से कटती है रिश्तों की डोर अक्सर
दोष दूसरों के सिर मढना तो शौक है अपना..
बहुत सुन्दर सृजन
वाह!!!
आदरणीया सुधा जी
Deleteरचना पसंद करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया
आभार
मनोज
आदरणीया मीना जी
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
मनोज