पतझड़ सा खामोश हैं मन l
पर कटे परिंदो सा विचलित हैं तन ll
स्याह अंधेरों में गुम हो गया वक़्त l
चिनारों के दरख़्तों पर अब नहीं कोई सहर ll
बंजारा हो फिर रहा हूँ दर बदर l
कैसे पिघले पत्थर रहा ना कोई हमसफ़र ll
कड़वाहट घुली मौसम मिजाज ऐसी l
दूरियाँ थाम ली रिश्तों मिजाज वैसी ll
महज इतेफाक कहूँ या आत्म संजोग l
अपरिचित से लगने लगे हैं खुद के नयन ll
बदल गए हैं अब सपनों के भी पल l
टूट गए साहिल ढह गए रेतों के महल ll
नवयौवन नवरंग फूलों खिला नहीं l
बदरा इस सावन खिलखिला हँसा नहीं ll
बदल गयी तस्वीर चिनारों की पुरानी l
वसंत दरख्तों पर फिर कभी लौटा नहीं ll
सुहानी शामें ठंडी आहों सी सिसक गयी l
कारवाँ पतझड़ का अब तलक गुजरा नहीं ll
पर कटे परिंदो सा विचलित हैं तन ll
स्याह अंधेरों में गुम हो गया वक़्त l
चिनारों के दरख़्तों पर अब नहीं कोई सहर ll
बंजारा हो फिर रहा हूँ दर बदर l
कैसे पिघले पत्थर रहा ना कोई हमसफ़र ll
कड़वाहट घुली मौसम मिजाज ऐसी l
दूरियाँ थाम ली रिश्तों मिजाज वैसी ll
महज इतेफाक कहूँ या आत्म संजोग l
अपरिचित से लगने लगे हैं खुद के नयन ll
बदल गए हैं अब सपनों के भी पल l
टूट गए साहिल ढह गए रेतों के महल ll
नवयौवन नवरंग फूलों खिला नहीं l
बदरा इस सावन खिलखिला हँसा नहीं ll
बदल गयी तस्वीर चिनारों की पुरानी l
वसंत दरख्तों पर फिर कभी लौटा नहीं ll
सुहानी शामें ठंडी आहों सी सिसक गयी l
कारवाँ पतझड़ का अब तलक गुजरा नहीं ll
बहुत सुन्दर और सामयिक रचना।
ReplyDeleteआदरणीय शास्त्री जी
Deleteआपकी हौशला अफ़ज़ाई से मेरी लिखावट में और निखार लाती हैं, आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
मनोज