Saturday, June 1, 2019

बेपर्दा

हर पाबंदियाँ तोड़ ख़त मैंने अनेक लिखे

किस पत्ते पर भेजूँ यह समझ ना पाया 

ज़िक्र तेरा सिर्फ़ खाब्बों की ताबीर में था 

तेरी जुस्तजूं का भी दिल को पता ना था

रुमानियत भरे खतों के लफ्जों में 

डोर एक अनजानी सी बँधी थी 

पर बिन पत्ते इनकी परछाई भी बैरंगी थी 

कशिश कोई ग़ुमनाम सी छेड़ दिलों के तार 

हर खत बुन रही थी तेरे ही अक्स ए अंदाज़ 

लिए बैठे था ख़त तेरे नाम हज़ार 

उतर आया था इन खतों में 

मानों चुपके से कोई आफ़ताब  

और हौले से बेपर्दा कर गया 

रूह को मेरी सरे बाज़ार, सरे बाज़ार 

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