Sunday, April 7, 2019

गुमराह

गुमराह हो गयी राहें ख़फ़ा हो मुझसे

बीच चौराहें खड़ा रहा मग्न अपनी धुन में

ठहर गयी मंज़िलें ग़ुम हो गए रास्तें

अम्बर नीला धरा सुनहरी

ख़ोज रहा दिल मरुधर में मोती

भूल गया सागर बीच मिले हैं मोती

मन चिंतन भटक रहा गली गली

कभी चले दो कोश कभी पकड़े पगडंडी

कैसी यह विडम्बना कैसी यह पहेली

सिर्फ़ चाँदनी लग रही सखी सहेली सी

मूँद आँखे खोल दिल के छोर

गणना करने लगे मन चितचोर

किस राह पकड़ूँ मिल जाये क्षितिज का मोड़

छू लूँ अम्बर चूम लूँ पर्वत शिखर

निकाल लूँ मरुधर के सिप्पों से भी मोती

मिल जाये राहें अगर फ़िर वो अनोखी

गुमराह हो गयी थी जो कर मन चोरी  

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