कल जब आईना देखा तब यह अहसास हुआ
वक़्त कितनी रफ़्तार से बदल गया
मन चिंतन तन वंचित विग्रह कर उठा
यादों के गलियारों में यह कैसा सन्नाटा पसर गया
कारवाँ जो साथ जुड़ा था कब का बिछड़ गया
पथरों के शहर में
बस एक मूकदर्शक बन रह गया
यूँ लगा मानों कितनी सदियाँ गुजर गयी
रंगत क़ायनात की फ़िज़ा संग अपने बदल गयी
सब था पास मगर सब्र ना था अब पास मगर
रौशनी से जैसे छन रही तम की माया नजर
एक अजनबी ख़ामोशी के मध्य
टूट रहे थे अब झूठे तिल्सिम के साये
रूबरू हक़ीक़त पहचान डर गया मन बाबरा
निहारु ना अब कभी दर्पण
लगने लगा यह जीवन अभिशाप कामना
लगने लगा यह जीवन अभिशाप कामना
वक़्त कितनी रफ़्तार से बदल गया
मन चिंतन तन वंचित विग्रह कर उठा
यादों के गलियारों में यह कैसा सन्नाटा पसर गया
कारवाँ जो साथ जुड़ा था कब का बिछड़ गया
पथरों के शहर में
बस एक मूकदर्शक बन रह गया
यूँ लगा मानों कितनी सदियाँ गुजर गयी
रंगत क़ायनात की फ़िज़ा संग अपने बदल गयी
सब था पास मगर सब्र ना था अब पास मगर
रौशनी से जैसे छन रही तम की माया नजर
एक अजनबी ख़ामोशी के मध्य
टूट रहे थे अब झूठे तिल्सिम के साये
रूबरू हक़ीक़त पहचान डर गया मन बाबरा
निहारु ना अब कभी दर्पण
लगने लगा यह जीवन अभिशाप कामना
लगने लगा यह जीवन अभिशाप कामना
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-02-2019) को "बैरी के घर में किया सेनाओं ने वार" (चर्चा अंक-3260) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यूँ लगा मानों कितनी सदियाँ गुजर गयी
ReplyDeleteरंगत क़ायनात की फ़िज़ा संग अपने बदल गयी
सब था पास मगर सब्र ना था अब पास मगर
रौशनी से जैसे छन रही तम की माया नजर
एक अजनबी ख़ामोशी के मध्य
टूट रहे थे अब झूठे तिल्सिम के साये...बेहतरीन लेखन |
सादर