मस्तिष्क शून्य चेतना लुप्त
रूह नदारद ख़ुदा विचारत
जग मिथ्या मृगतृष्णा बिसारत
भटकत मन उद्वेगिन नयन
भाव करत द्वन्द चित करत सुमिरन
बिखरत हर भँवर बरसत लहू रंग
बिमुख होत चलत अशांत तन
काल निशा करत फ़िरत भ्रमर
लगत ग्रहण अस्त होवत जाय दिवाकर
समय प्रहर करत तांडव
विचलित होय तरुण राग फ़िरत जाय
करुण रास गला रुँधत जाय
ठगत जाय छलत जाय
आत्म मंथन जौहर बलि चढ़त जाय
जौहर बलि चढ़त जाय
रूह नदारद ख़ुदा विचारत
जग मिथ्या मृगतृष्णा बिसारत
भटकत मन उद्वेगिन नयन
भाव करत द्वन्द चित करत सुमिरन
बिखरत हर भँवर बरसत लहू रंग
बिमुख होत चलत अशांत तन
काल निशा करत फ़िरत भ्रमर
लगत ग्रहण अस्त होवत जाय दिवाकर
समय प्रहर करत तांडव
विचलित होय तरुण राग फ़िरत जाय
करुण रास गला रुँधत जाय
ठगत जाय छलत जाय
आत्म मंथन जौहर बलि चढ़त जाय
जौहर बलि चढ़त जाय
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-12-2018) को "भवसागर भयभीत हो गया" (चर्चा अंक-3178) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'