सब कुछ हैं पास फ़िर भी अकेला हूँ
जिंदगी की भीड़ में तन्हा खड़ा हूँ
आँसू भी अब तो लगे पराये से हैं
रूह भी जिस्म से जैसे जुदा जुदा हैं
हाथों की लकीरें अधूरी अधूरी सी हैं
किस्मत मानो जैसे गहरी निंद्रा सोई हैं
साज़िश ना जाने कौन सी छिपी हैं
हर मुक़म्मल प्रार्थना भी मानों अधूरी सी हैं
शायद खुदगर्ज़ बन खुदा भी गूँगी बन सोई हैं
गूँगी बन सोई हैं
जिंदगी की भीड़ में तन्हा खड़ा हूँ
आँसू भी अब तो लगे पराये से हैं
रूह भी जिस्म से जैसे जुदा जुदा हैं
हाथों की लकीरें अधूरी अधूरी सी हैं
किस्मत मानो जैसे गहरी निंद्रा सोई हैं
साज़िश ना जाने कौन सी छिपी हैं
हर मुक़म्मल प्रार्थना भी मानों अधूरी सी हैं
शायद खुदगर्ज़ बन खुदा भी गूँगी बन सोई हैं
गूँगी बन सोई हैं
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 06.12.20-18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3177 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत ख़ूब 👌
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