पत्थरों का शहर हैं ऐ ज़नाब
मुर्दाघरों सा यहाँ सन्नाटा हैं
बियाबान रात की क्या बात
दिन के उज्जाले में भी यहाँ
अस्मत आबरू शर्मसार हैं
कहने को हैं ए सभ्य समाज
पर जंगल का यहाँ राज हैं
दरिन्दों की हैवानियत के आगे
मूक जानवर भी यहाँ लाचार हैं
पानी से सस्ता बिकता मानव लहू यहाँ
शायद इसलिए
नरभक्षियों की बिसात के आगे यहाँ
खुदा भी खुद मौन विवश लाचार हैं
इसी कारण
पत्थरों के इस शहर में
कुदरत के कानून के आगे
मानवता जैसे कफ़न में लिपटी
कोई जिन्दा लाश हैं, कोई जिन्दा लाश हैं
मुर्दाघरों सा यहाँ सन्नाटा हैं
बियाबान रात की क्या बात
दिन के उज्जाले में भी यहाँ
अस्मत आबरू शर्मसार हैं
कहने को हैं ए सभ्य समाज
पर जंगल का यहाँ राज हैं
दरिन्दों की हैवानियत के आगे
मूक जानवर भी यहाँ लाचार हैं
पानी से सस्ता बिकता मानव लहू यहाँ
शायद इसलिए
नरभक्षियों की बिसात के आगे यहाँ
खुदा भी खुद मौन विवश लाचार हैं
इसी कारण
पत्थरों के इस शहर में
कुदरत के कानून के आगे
मानवता जैसे कफ़न में लिपटी
कोई जिन्दा लाश हैं, कोई जिन्दा लाश हैं
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-10-2018) को "छिन जाते हैं ताज" (चर्चा अंक-3115) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह ,
ReplyDeleteदिल को झकझोरने वाली बात लिख दी हैं आपने