सहर ने एक नायाब शब्बाब इख्तियार कर लिया
रूहानियत आफरीन अकदित हो उठ आयी
वसल नजाकत सिद्दत बन गयी रक्स के राग पे
खुल्द खुलूस तस्कीन से जो अब तलक महरूम थी
आज मुख़्तलिफ़ बन मय्सर हो आयी
अमादा हो गयी मानो जमाल की अकीदत
लिहाज़ लहज़ा वसल जैसे एहतिराम कर आयी
नूर मुकादस सिफ़र ना था इसका , इसलिए
हर शबनमी कतरा इस पर फ़ना हो आयी
रंजिश मिथ्या तल्खी कहर अब गुजरी रात थी
आबशार सा शब्बाब लिए वो आज आफ़ताब की चाँद थी
मय्सर ऐसे हो गए आज उनके नवाजिसों कर्म
उन्स मानों जैसे काफिलों की बारात बन आयी
रंग ऐसा चढ़ा उनका बदलते पैमानों की रफ़्तार पे
रक्स के राग पे , रक्स के राग पे
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (01-10-2018) को "राधे ख्यालों में खोने लगी है" (चर्चा अंक-3111) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी