गुजरता रहा ठहरता रहा
इस खुशफ़हमी में जीता रहा
खुदा हूँ इस दिल का
इसलिए औरों से किनारा करता रहा
अहंकार के वशीभूत उस चौराहें खड़ा था
जहाँ न कोई तर्पण था न कोई अर्पण था
मरुभूमि की मृगतृष्णा सा
अज्ञानी प्यासा अकेला सा खड़ा था
चिंतन मनन अब कल का हिस्सा था
इन दरख़तों में तो सिर्फ और सिर्फ
अब बबूल का झाड़ था
फितरत कायनात का भी सबक था
औरों को तुच्छ समझना
अपने पतन का मार्ग था
अपने पतन का मार्ग था
इस खुशफ़हमी में जीता रहा
खुदा हूँ इस दिल का
इसलिए औरों से किनारा करता रहा
अहंकार के वशीभूत उस चौराहें खड़ा था
जहाँ न कोई तर्पण था न कोई अर्पण था
मरुभूमि की मृगतृष्णा सा
अज्ञानी प्यासा अकेला सा खड़ा था
चिंतन मनन अब कल का हिस्सा था
इन दरख़तों में तो सिर्फ और सिर्फ
अब बबूल का झाड़ था
फितरत कायनात का भी सबक था
औरों को तुच्छ समझना
अपने पतन का मार्ग था
अपने पतन का मार्ग था
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-09-2018) को "चाहिए पूरा हिन्दुस्तान" (चर्चा अंक-3103) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'