गुश्ताख़ियाँ कुछ ऐसी हमसे हो गयी
कुछ यादगार फ़सानों में तो
कुछ अफसानों में तब्दील हो गयी
अर्ज़ियाँ लिखी फ़िर खूब गुजारिशों के साथ
शायद टूट जाए फासलों की शमशीरें दीवार
ओर बदल जाए हसीन गुनाहों के संसार
बिन कहे ही ना जाने कब मन बाबरा
भिभोर हो चला था उस अदाकार के साथ
उम्र के उस कमसिन दौर में
अनजाने में बदल गए थे जज्बात
पर जाने कैसे चुभ गयी
दिल को वो एक मर्मस्पर्शी छोटी सी बात
थम गया सिलसिला ठहर गया कारवाँ
डहा बहा ले गया अश्क़ों का सैलाब
दिलों के दरमियाँ थी जो यारी की दीवार
दिलों के दरमियाँ थी जो यारी की दीवार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-08-2018) को "रोटियाँ हैं खाने और खिलाने की नहीं हैं" (चर्चा अंक-3053) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
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