Thursday, August 2, 2018

गुश्ताख़ियाँ


गुश्ताख़ियाँ कुछ ऐसी हमसे हो गयी 

कुछ यादगार फ़सानों में तो

कुछ अफसानों में तब्दील हो गयी

अर्ज़ियाँ लिखी फ़िर खूब गुजारिशों के साथ

शायद टूट जाए फासलों की शमशीरें दीवार  

ओर बदल जाए हसीन गुनाहों के संसार 

बिन कहे ही ना जाने कब मन बाबरा 

भिभोर हो चला था उस अदाकार के साथ 

उम्र के उस कमसिन दौर में 

अनजाने में बदल गए थे जज्बात 

पर जाने कैसे चुभ गयी 

दिल को वो एक मर्मस्पर्शी छोटी सी बात 

थम गया सिलसिला ठहर गया कारवाँ

डहा बहा ले गया अश्क़ों का सैलाब

दिलों के दरमियाँ थी जो यारी की दीवार 

दिलों के दरमियाँ थी जो यारी की दीवार 


2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-08-2018) को "रोटियाँ हैं खाने और खिलाने की नहीं हैं" (चर्चा अंक-3053) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर रचना

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