मशग़ूल रहा मैं जिंदगी की दौड़ भाग में
गुफ्तगूँ कभी कर ना पाया अपने आप से
वक़्त मेरे लिए ठहर पाया नहीं
गुजर गयी जिंदगी जैसे घुँघरू की ताल पर
सोचा कभी साक्षातार करलूँ जीवन आत्मसात से
थिरकने फिर इसकी धुन पर
चल पड़ा मैं
कभी मधुशाला की चाल पर
कभी मंदिर मस्जिद की ताल पर
रूबरू फिर भी हो ना पाया अपने आप से
मंजर इसका बयाँ कैसे करुँ समझ ये कभी पाया नहीं
नापाक खुदगर्जी सी लगने लगी
बटोरी थी अब तलक जो शौहरतें
कसक बस एक इतनी सी रह गयी
मिलने खुद से
ललक अधूरी यूँ रह सी गयी
निर्वृत हो जाऊँ अब मोह माया जाल से
गले लिपट रो सकूँ अंत में अपने आप से
कशिश कही यह अधूरी रह ना जाए
इसलिए जिंदगी बस एक मौका ओर दे दे
ताकि सकून से
गुफ्तगूँ कर पाऊँ अपने आप से
अपने आप से
गुफ्तगूँ कभी कर ना पाया अपने आप से
वक़्त मेरे लिए ठहर पाया नहीं
गुजर गयी जिंदगी जैसे घुँघरू की ताल पर
सोचा कभी साक्षातार करलूँ जीवन आत्मसात से
थिरकने फिर इसकी धुन पर
चल पड़ा मैं
कभी मधुशाला की चाल पर
कभी मंदिर मस्जिद की ताल पर
रूबरू फिर भी हो ना पाया अपने आप से
मंजर इसका बयाँ कैसे करुँ समझ ये कभी पाया नहीं
नापाक खुदगर्जी सी लगने लगी
बटोरी थी अब तलक जो शौहरतें
कसक बस एक इतनी सी रह गयी
मिलने खुद से
ललक अधूरी यूँ रह सी गयी
निर्वृत हो जाऊँ अब मोह माया जाल से
गले लिपट रो सकूँ अंत में अपने आप से
कशिश कही यह अधूरी रह ना जाए
इसलिए जिंदगी बस एक मौका ओर दे दे
ताकि सकून से
गुफ्तगूँ कर पाऊँ अपने आप से
अपने आप से
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-02-2018) को "अपने सढ़सठ साल" (चर्चा अंक-2869) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
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