Sunday, September 24, 2017

वट वृक्ष

समय के थपेड़ों ने सबक़ ऐसा सीखा दिया

लोहा भी आग में दमक

सोना सा निख़ार पा गया

सम्बोधन काल चक्र ऐसा बना

वाणी स्पर्श मात्र से

चिराग रोशन हो गया

अभिव्यक्ति की इस अनमोल धरोहर ने

सूत्र प्रकाश पुंज ऐसा प्रज्वलित कर  दिया

अँधेरे में भी रौशनी का आभास हो गया 

लगन समर्पण विचरण

छूने नभ आतुर हो गया

आधार आकार शून्य संगम

धुर्व तारा सा बन चमक गया

बदलते परिवेश के उतार चढ़ाव ने

इस रंगमंच को आयाम नया थमा दिया

अध्याय फ़िर ऐसा खूबसूरत प्रारंभ हुआ

जड़ चेतन ज्ञान वट वृक्ष बन गया

 ज्ञान वट वृक्ष बन गया

ख़ुमारी

नींद को जागते रहने की ख़ुमारी लग गयी

नयनों को जाने कौन सी बीमारी लग गयी

बोझिल पलकों को तारों संग

चाँद को निहारने की आदत लग गयी

फ़ितरत नींद की ऐसी बदल गयी

जाने इसे किसकी नज़र लग गयी

खुली शबनमी पलकों की सिफ़ारिश भी यूँही रह गयी

बिन करवटें ही आँखों में रात ढल गयी

नींद की मासूमियत तन्हाइयों में जाने कहा खो गयी

हर रात एक सदी सी

लम्बी दासताँ बन गयी

नींद को जागते रहने की ख़ुमारी लग गयी

ख़ुमारी लग गयी

Saturday, September 23, 2017

लाशों का दरिया

जिन्दा लाशों का दरिया बन गया मेरा शहर

रूहों का यहाँ नहीं कोई हमसफ़र

बिक गयी मानों यहाँ हर एक आत्मा

तुच्छ विपासना हवस के आगे

मय्यत भी मानों दफ़न ऐसे हो गयी

अपनों के ही आँसुओ को जैसे तरस गयी

वैश्या बन गयी यहाँ हर एक चेतना

भूल ज़मीर को कोठे की दहलीज के आगे 

मोहताज हो गयी राहों को अंतरात्मा

विलुप्त होते संस्कारों में कहीं

रंज इसका रहा नहीं किसीको भी यहाँ जरा

बिन रूह जिंदगी का कोई मौल नहीं

 बिन रूह जिंदगी का कोई मौल नहीं

 

Wednesday, September 13, 2017

तेरे ही नाम

नाम तेरा हम गुनगुनाते रहे

अफ़सोस मगर

समझ ना पाये तुम इन अफसानों को

खोये रहें तुम अपने ही फ़सानों में

मुज़रिम बना दिया मुझे अपने सवालों से

तुम समझ ना पाये बात मेरे इशारों की

कि 

आरजू इस दिल ने बस इतनी की

मौत जब आये

पैगाम आख़री भी तेरे ही नाम हो

तेरे ही नाम हो

Tuesday, September 12, 2017

दास्तानें उलझनों की

कोशिश बहुत की

समेट लूँ कुछ उलझनें अपनी

हैरान आश्चर्य चकित रह गया

पहेलियों सा जाल इसका देख कर

छोर मगर उसका ढूंढ ना पाया

धड़कने भी अपनी रोक के

बदहाल बेहाल हो गयी साँसे

दास्तानें उलझनों की सुन के

दास्तानें उलझनों की सुन के

इकरार

इस जिंदगी को मोहब्बत रास आयी नहीं

सपनों के बाहर की दुनिया पास नहीं आयी

काश महबूब ने पहले किया होता इकरार

जिक्र हमारा भी फिर होता चाँद के साथ 

इस हक़ीक़त से अब कैसे करे इंकार

लबों पे नहीं अब तलक इकरार

पर आँखों से कैसे करे इंकार

इशारों में ही एक बार कह देते वो बात

सुनने दिल जिसे मुदत्तों से था बेकरार

सुनने दिल जिसे मुदत्तों से था बेकरार 

खता

खायी हैं चोटें बहुत इस दिल ने

खता हमारी क्या

दिल किसी का तोड़ दे

माना जज्बातों का कोई मौल नहीं

पर दिल के भँवर के आगे

इंकार पे जोर नहीं

लब मगर कह ना पाए वो जज्बात

क्योंकि मशूगल रह गया दिल

निहारने में महताब

निहारने में महताब

शिकायत

शिकायतों का तुमने ऐसा पहाड़ बना दिया

ना ख़ुद हँस के जिये, ना हमें जीने दिया

अम्बर से ऊँचा ऐसा अंबार लगा दिया

जीना दुश्वार हो, दिवास्वप्न बन रह गया

कुंठाग्रस्त भावना से ग्रसित मर्ज ने

शिकायतों के बोझ तले हसीं को दफ़ना दिया

बेख़ुदी के आलम से हम भी बच ना पाये

हर लफ्जों में शिकायतों को शुमार देख

ख़ुद को अपना गुनहगार मान लिया

शिकायतों को भी शिकायतों से शिकायत ना रहे

इसलिए गुमशुदगी में नाम अपना दर्ज करा दिया

नाम अपना दर्ज करा दिया

Saturday, September 9, 2017

एक बार फ़िर

चल आज एक बार फ़िर बहकने चलते हैं

लड़खड़ाते कदमों को सँभालने चलते हैं

ना मंदिर ना मस्जिद, थाम खुदा का हाथ

मधुशाला के द्वार चलते हैं

रहमों कर्म से, बिरादरी से इसकी

रूबरू खुदा को भी कराते हैं

हर मर्ज की दवा इसके साये में

खुदा को भी यह दिखलाते हैं

कैफियत के इसके रंगों से

चल एक बार खुदा बन जाते हैं

लड़खड़ाते कदमों को सँभालने चलते हैं

चल आज एक बार फ़िर बहकने चलते हैं

चल आज एक बार फ़िर बहकने चलते हैं



Friday, September 8, 2017

कर्मों के फल

अंतर्नाद का नाद हैं ये

ख़ुद से संघर्ष का रणभेदी आगाज़ हैं ये

पल प्रतिपल बदलते विचारों में

सामंजस्य पिरोने का सरोकार हैं ये

महा समर के चक्रव्ह्यु का

यह तो एक अध्याय हैं बस

संयम साधना ब्रह्मास्त्र ही

एकमात्र इस पहेली का राज हैं बस  

तपोबल ज्ञान से इसके

लक्ष्य दूर नहीं होगा तब

दृष्टि भ्रम से जब विचलित ना हो पायेगा मन

इसके एकांकित ध्यान केंद्र में ही 

समुचित हैं सब आस्था के फल

सब आस्था के फल

नींद

रात गुजरती नहीं सुबह चली आती हैं

नींद एक अदद फिर मुकम्मल हो पाती नहीं

विपासना साधना में तल्लीन मन

स्वांग आडंबर का रचाती हैं

ना जाने कैसे सपनों की धरोहर हैं ये

अमूल्य नींद के पलों को बेआबरू कर जाती हैं

बचपन में अर्जित नींद की अस्मत को

क्योँ फटेहाल किस्मत तार तार कर जाती हैं

सपनों की सौदागिरी में

शायद नींद भी कहीं बिक जाती हैं

परवान चढ़ते इस समझौते से

बिन थपकी ही रात पहर गुजर जाती हैं

और बिन नींद मुकम्मल हुए

सुबह चली आती हैं

सुबह चली आती हैं

Saturday, September 2, 2017

उम्र की चाबी

उम्र तो जिंदगी की दहलीज़ का बस एक पैमाना हैं

जिन्दा रहने को साँसें भी एक बहाना हैं

संघर्ष ही इसके अंदाज का आशियाना हैं

लुफ्त तभी हैं इसे जीने का

कारवाँ बेशक गुज़र जाये उम्र का

पर बचपन आगे और बुढ़ापा पीछे चलने की क़वायद सारी हैं

राहगुजर के इस पड़ाव में

उम्र का यह अपना ही हसीन फ़साना हैं

वैराग्य के इस राग में छिपे

जिंदगी के राज

बड़े मतवाले आशिक़ हैं

गुज़र गयी जो

वो तो बस एक कहानी हैं

उम्र तो बस साँसों की गुजारिश हैं

ग़ौर ना फरमाइये उम्र के पहलू पर

जब तलक दिल से जीने की ललक बाकी हैं

उम्र के तिल्सिम पिटारे की

बस यही एक चाबी हैं