Saturday, August 19, 2017

महफ़ूज

वो अक्सर ख्यालों में ही महफ़ूज रहे

सामने जब जब आए

नजरें चुरा के चले गए

अदा उनकी यह

मन को ऐसी भा गयी

मीठा सा दर्द बन दिल में समा गयी

अल्हड़ कमसीन नादाँ उम्र कुछ समझ ना पायी

ओर इश्क़ के मर्ज से खुद को महफ़ूज रख ना पायी

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-08-2017) को "बच्चे होते स्वयं खिलौने" (चर्चा अंक 2703) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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