माना ज्ञानी नहीं अज्ञानी हूँ मैं
फ़िर भी गुरुर से सराबोर रहता हूँ मैं
तिलक हूँ किसीके माथे का
महक से इसकी नाशामंद रहता हूँ मैं
नाज़ हैं ख़ुद पे बस इतना सा
अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूँ मैं
अपनों से फिक्रमंद नहीं रजामंद हूँ मैं
दिल की दौलत से ऐसा सजा हूँ मैं
फ़कीरी में भी अमीरी से लबरेज़ रहता हूँ मैं
ना ही मैं कोई संत हूँ ना ही कोई साधू हूँ
फ़िर भी एक सच्चा साथी हूँ मैं
क्योंकि
अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूँ मैं
फ़िर भी गुरुर से सराबोर रहता हूँ मैं
तिलक हूँ किसीके माथे का
महक से इसकी नाशामंद रहता हूँ मैं
नाज़ हैं ख़ुद पे बस इतना सा
अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूँ मैं
अपनों से फिक्रमंद नहीं रजामंद हूँ मैं
दिल की दौलत से ऐसा सजा हूँ मैं
फ़कीरी में भी अमीरी से लबरेज़ रहता हूँ मैं
ना ही मैं कोई संत हूँ ना ही कोई साधू हूँ
फ़िर भी एक सच्चा साथी हूँ मैं
क्योंकि
अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूँ मैं
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