वेदना अपनी बयाँ ना कर पाया
यादों का अग्नि कुंड पास था
अफसानों का वो तिल्सिमि पिटारा अब पास ना था
उस शमा का फिर भी इंतजार था
किताब के पन्नों पे इसे उकेर ना पाया
रोशनी चुरा ले गया कोई काफ़िर हमारी
भटका गया मंजिल से राह हमारी
पाना जिस मंजिल को कभी हसरतें थी हमारी
कशिश अधूरी रह गयी थी वो हमारी
आलम अब तो बस बेबसी का संग था
रूह जलाने को
यादों का अग्नि कुंड पास था
ना दरियां में अब वो तूफां था
ना हवाओँ में वो आगाज़ था
सुन ठहर जाती थी मंजिल जिसे कभी
अफसानों का वो तिल्सिमि पिटारा अब पास ना था
बुझते चिलमन को रोशन रहने
उस शमा का फिर भी इंतजार था
फिर भी इंतजार था
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (08-06-2017) को
ReplyDelete"सच के साथ परेशानी है" (चर्चा अंक-2642)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
अधूरी कोशिश करोर पूरी होती है ... कई बार सफ़र लम्बा हो जाता है ... भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...
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