आज फ़िर कुछ लिखने को मन हो रहा हैं
बंजर हो गयी मानों दिलों की जमीं
मृगतृष्णा की चाह में इसिलए
शायद लोग हद से गुजर जाते हैं
कुछ पल का रैन बसेरा कर
फ़िर दूर कही परवाज़ भर जाते हैं
ओर हौले से बंजारों की इस टोली को
अलविदा कह जाते हैं
अलविदा कह जाते हैं
दिल अपना फ़िर से खोलने को मन हो रहा हैं
क्यों हमसफ़र बन मिलते हैं लोग
बिछड़ जाने को
ग़म अपना उधार दे भूल जाने को
बंजर हो गयी मानों दिलों की जमीं
मृगतृष्णा की चाह में इसिलए
शायद लोग हद से गुजर जाते हैं
कुछ पल का रैन बसेरा कर
फ़िर दूर कही परवाज़ भर जाते हैं
ओर हौले से बंजारों की इस टोली को
अलविदा कह जाते हैं
अलविदा कह जाते हैं
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