Monday, August 29, 2016

अजनबी कशिश

उस रूह के हम गुलाम हो गए

दिल जिससे कभी रूबरू हुआ नहीं 

कुछ ऐसी वो अजनबी कशिश थी

खाब्बों में जिसकी धुँधली सी तस्वीर थी

रंग कैसे भरता इस मौशिकी की ताबीर में

क्योँकि  मिली ना वो परछाई थी

गुलामी जिसकी सर चढ़ आयी थी

मंजर सपनों का ए बड़ा प्यारा था

दिल की फिजाओं को महकता जिसका आलम था

दीदार मगर उस रूह के अब तलक हुए नहीं

फिर ख्यालों में भी दिल 

कभी किसी ओर रूह को बेकरार हुआ नहीं

बेकरार हुआ नहीं



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