उस रूह के हम गुलाम हो गए
दिल जिससे कभी रूबरू हुआ नहीं
कुछ ऐसी वो अजनबी कशिश थी
खाब्बों में जिसकी धुँधली सी तस्वीर थी
रंग कैसे भरता इस मौशिकी की ताबीर में
क्योँकि मिली ना वो परछाई थी
गुलामी जिसकी सर चढ़ आयी थी
मंजर सपनों का ए बड़ा प्यारा था
दिल की फिजाओं को महकता जिसका आलम था
दीदार मगर उस रूह के अब तलक हुए नहीं
फिर ख्यालों में भी दिल
कभी किसी ओर रूह को बेकरार हुआ नहीं
बेकरार हुआ नहीं
दिल जिससे कभी रूबरू हुआ नहीं
कुछ ऐसी वो अजनबी कशिश थी
खाब्बों में जिसकी धुँधली सी तस्वीर थी
रंग कैसे भरता इस मौशिकी की ताबीर में
क्योँकि मिली ना वो परछाई थी
गुलामी जिसकी सर चढ़ आयी थी
मंजर सपनों का ए बड़ा प्यारा था
दिल की फिजाओं को महकता जिसका आलम था
दीदार मगर उस रूह के अब तलक हुए नहीं
फिर ख्यालों में भी दिल
कभी किसी ओर रूह को बेकरार हुआ नहीं
बेकरार हुआ नहीं
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