Monday, August 8, 2016

बारिस

भोर की बारिस कान में कुछ गुनगुना गयी

हौले से नींद मेरी चुरा ले गयी

मिज़ाज कुछ ऐसा आशिक़ाना बना गयी

बाँहों में उनके दीदार करा गयी

सर्द ठंडी आहों में

तड़पते दिल को बेकरार बना गयी

बदनाम थे आशिक़ हम

बारिस उसपर क़यामत बरसा गयी

हर करवटों में

सपनों की एक नयी सौगात थमा गयी

भर रूह को बदरी के आगोश में

छम छमा छम मेघ बरसा गयी

भोर की बारिस चुपके से

निंदिया चुरा ले गयी

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलमंगलवार (09-08-2016) को "फलवाला वृक्ष ही झुकता है" (चर्चा अंक-2429) पर भी होगी।
    --
    मित्रतादिवस और नाग पञ्चमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. शास्त्री जी
      शुक्रिया
      सादर
      मनोज

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  2. वाह भोर की बारिश और आपका रूमानी मिजाज़।

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    1. आदरणीय दीदी
      तहे दिल से शुक्रिया
      सादर
      मनोज

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