मशरूफ था मैं
उसे अपने अल्फ़ाज बनाने में
सँवार ना पाया लफ्ज़
मगर उसके लिए किराने से
बेकरार थे शब्द जो मेरे
लब उसके छू जाने के लिए
दफ़न रह गए वो सूनी आवाज़ बनकर
सीने में मेरे समा के
कह ना पाया कभी उससे
शाम ए ग़ज़ल मेरी
मेरे अल्फाज़ की पहचान ही है
खन खनाती सी मीठी तेरी बोली
मशगूल रह गया मैं
लिखने में बस कवायद उसकी
ओर वो बन ना पायी कभी
दीवानी अल्फाज़ की मेरी
अल्फाज़ की मेरी
उसे अपने अल्फ़ाज बनाने में
सँवार ना पाया लफ्ज़
मगर उसके लिए किराने से
बेकरार थे शब्द जो मेरे
लब उसके छू जाने के लिए
दफ़न रह गए वो सूनी आवाज़ बनकर
सीने में मेरे समा के
कह ना पाया कभी उससे
शाम ए ग़ज़ल मेरी
मेरे अल्फाज़ की पहचान ही है
खन खनाती सी मीठी तेरी बोली
मशगूल रह गया मैं
लिखने में बस कवायद उसकी
ओर वो बन ना पायी कभी
दीवानी अल्फाज़ की मेरी
अल्फाज़ की मेरी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-05-2016) को "कहाँ गये मन के कोमल भाव" (चर्चा अंक-2355) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय शास्त्री जी
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
आभार
मनोज