मशरूफ था मैं
उसे अपने अल्फ़ाज बनाने में
सँवार ना पाया लफ्ज़
मगर उसके लिए किराने से
बेकरार थे शब्द जो मेरे
लब उसके छू जाने के लिए
दफ़न रह गए वो सूनी आवाज़ बनकर
सीने में मेरे समा के
कह ना पाया कभी उससे
शाम ए ग़ज़ल मेरी
मेरे अल्फाज़ की पहचान ही है
खन खनाती सी मीठी तेरी बोली
मशगूल रह गया मैं
लिखने में बस कवायद उसकी
ओर वो बन ना पायी कभी
दीवानी अल्फाज़ की मेरी
अल्फाज़ की मेरी
उसे अपने अल्फ़ाज बनाने में
सँवार ना पाया लफ्ज़
मगर उसके लिए किराने से
बेकरार थे शब्द जो मेरे
लब उसके छू जाने के लिए
दफ़न रह गए वो सूनी आवाज़ बनकर
सीने में मेरे समा के
कह ना पाया कभी उससे
शाम ए ग़ज़ल मेरी
मेरे अल्फाज़ की पहचान ही है
खन खनाती सी मीठी तेरी बोली
मशगूल रह गया मैं
लिखने में बस कवायद उसकी
ओर वो बन ना पायी कभी
दीवानी अल्फाज़ की मेरी
अल्फाज़ की मेरी