अधरों को मेरे लफ्ज़ अगर मिल जाते
करने हर खाब्ब को सच
पर लगा के वो उड़ जाते
ठहर ना पाती बात इसी तलक
क्योंकि, सितारों की महफ़िल से निकल वो
करीब चाँद के चले आते
आरजू जो थी दिल की
हसरतें वयां करने की
तम्मना पूरी वो कर पाते
तुम मानो या ना मानो
रुखसत तेरे दिल से फिर कैसे हो पाते
अधरों को मेरे जो लफ्ज़ मिल जाते
अधरों को मेरे जो लफ्ज़ मिल जाते
करने हर खाब्ब को सच
पर लगा के वो उड़ जाते
ठहर ना पाती बात इसी तलक
क्योंकि, सितारों की महफ़िल से निकल वो
करीब चाँद के चले आते
आरजू जो थी दिल की
हसरतें वयां करने की
तम्मना पूरी वो कर पाते
तुम मानो या ना मानो
रुखसत तेरे दिल से फिर कैसे हो पाते
अधरों को मेरे जो लफ्ज़ मिल जाते
अधरों को मेरे जो लफ्ज़ मिल जाते
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-03-2016) को "दूर से निशाना" (चर्चा अंक-2272) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी
Deleteसादर
मनोज