Friday, January 22, 2016

किश्तों में जिंदगी

किश्तों में जिंदगी जीना हमने छोड़ दी

लकीरें हाथों की हमनें मोड़ दी

देख जज्बे को

ख़फ़ा रहने वाली क़िस्मत भी खिलखिला उठी

फ़ैसला मुक़दर का अपने था

धारा जिंदगी की हमने मोड़ दी

वंचित रह न जाए जिंदगानी कही

फ़िज़ों में खुशबू हमने बिखेर दी

झुक गया आसमां भी

जिन्दा रहने की क़वायद जब हमने सीख ली

किश्तों में जिंदगी जीना हमने छोड़ दी

लकीरें हाथों की हमनें मोड़ दी

किश्तों में जिंदगी जीना हमने छोड़ दी






1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-01-2016) को "कुछ सवाल यूँ ही..." (चर्चा अंक-2231) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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