जमघट था यारों का
मगर अकेला खड़ा था तन्हाई में
गुम थी परछाई भी
अकेला खड़ा लड़ रहा था तन्हाई से
खामोश हो चुकी थी जुबाँ भी
पथरा गयी थी आँखें भी
लफ्ज कोई मिल नहीं रहे थे
लव जैसे खुल नहीं रहे थे
इस पल संग किसीका ना था
नजारा कुछ ऐसा था
सब कुछ होते हुए भी
पास अपने कुछ ना था
पास अपने कुछ ना था
मगर अकेला खड़ा था तन्हाई में
गुम थी परछाई भी
अकेला खड़ा लड़ रहा था तन्हाई से
खामोश हो चुकी थी जुबाँ भी
पथरा गयी थी आँखें भी
लफ्ज कोई मिल नहीं रहे थे
लव जैसे खुल नहीं रहे थे
इस पल संग किसीका ना था
नजारा कुछ ऐसा था
सब कुछ होते हुए भी
पास अपने कुछ ना था
पास अपने कुछ ना था
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-11-2015) को "पञ्च दिवसीय पर्व समूह दीपावली व उसका महत्त्व" (चर्चा अंक-2160) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी बहुत बहुत आभार
Deleteसादर
मनोज
ओंकार जी हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया
ReplyDeleteसादर
मनोज